Wednesday, November 26, 2008

यूँ ही कभी कभी...

दर्द की इन आहों में इक चेहरा तलाशते हैं..
रेत की इन राहों में बस उसको तराशते हैं..

यूँ तो दर्द है इतना की ग़म-ऐ-जाम पिए जाते हैं..
बेशर्म सी ये ज़िन्दगी जो अब भी जिए जाते हैं..

कभी मुड के देखा तो कुछ राहगीर नज़र आते हैं..
जाने पहचाने से लगते हैं पर साफ़ मुकर जाते हैं..

आखरी है इल्तजा और आखरी ख्वाहिश यही..
अब अगर मिलना भी तो नज़रें कभी मिलाना नहीं..