Wednesday, May 20, 2009

एक कहानी..


बात शायद उन दिनों की है जब मैं class 5th या 6th में था। पता नहीं क्यूँ लेकिन हमेशा मुझे सड़क के किनारे दिखाए जानऐ वाले जादू टोने या फिर किसी सपेरे के साँप का खेल या ऐसे ही बाकी बचकाने दिखने वाले खेल तमाशों का शौक रहा था। हाँ, बन्दर का खेल देखना मैंने तब बंद कर दिया था जब ऐसे ही एक बार एक मदारी का तमाशा देखते देखते बन्दर ने मुझपे झपट कर मेरे हाथ पे एक अपने प्रेम भाव की निशानी छोड़ दी थी। शायद आपके भी हाथ पे टाँके लगेंगे तो सारा पशु पक्षी प्रेम वहीँ धरा का धरा रह जाएगा। खैर, ऐसी चीज़ों की तरफ़ मेरा बढ़ता ध्यान देख के घर वालों ने मुझे काफी पहले से ही समझाना शुरू कर दिया था की ये सब तमाशे जादू वगैरह सब हाथ की सफाई होती है और शायद घर में सबका थोड़ा religious bent of mind होने की वजह से भी शायद मुझे यही सिखाया गया था की किसी भी चमत्कार पे भरोसा करने से पहले उसकी सच्चाई को जानने की कोशिश करो। एक १०-११ साल के लड़के को इतनी बातें समझ में आती होती तो शायद आधे नोबल पुरस्कार अंडर-२० मिला करते...सो भूमिका बांधते बांधते मैंने शायद आपको ये समझा दिया की मुझे ये सब बहुत पसंद था!

जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, स्कूल से ही लौट रहा था। सड़क के किनारे भीड़ देखी तो मन मचल उठा। पास जाने पे पता चला की कोई बाप बेटे की टोली है और कुछ तो खेल तमाशे दिखा के लोगों से पैसे बटोरना चाह रहे हैं। शायद हमेशा से यही सीखा था की ये जादू, ये चमत्कार कुछ नहीं होता और जो लोग दिखाते हैं वो बस लोगों को उल्लू बनाना चाह रहे होते हैं, सो इसी वजह से ऐसे किसी भी खेल को मैंने उतनी ही skepticism से देखा है जितनी एक मेरी उम्र के बच्चे के बस में था। मुझे छोटा होने का एक फायेदा ज़रूर मिला की मैं किसी तरह इधर उधर से निकल के, सबसे आगे पहुँच गया। तब शायद वो एक खली गिलास में दूध भर जाने वाला जादू दिखा रहे थे। मैंने ये कई बार देखा था और शायद मेरे आस पास खड़े लोगों ने भी। तभी तो कोई सिक्के फेंके जाने की आवाजें भी नहीं आई। दरअसल ऐसे खेल दिखने में जो गिलास या जो भी accessories काम में आती थी वो आते जाते किसी न किसी मेले में कोई एक आध दुकानदार बेच ही रहा होता था। मेरी अपनी ही कहानी थी, मैंने शायद तभी ही कुछ दिन पहले "छोटा जादूगर" नाम का सीरियल देखा था, शायद कुनाल खेमू का पहले टीवी सीरियल, सो कुछ वैसा ही देखना चाह रहा था। उस बाप बेटे की जोड़ी ने फिर से कुछ खेल दिखाना शुरू किया। इस बार एक हाथ में सिक्का रख के दूसरे हाथ में अचानक से उसके आ जाने जैसा कुछ था। लोगों में थोडी सी भी उत्सुकता जैसा कुछ नहीं बचा था। मौसम की भी शायद इसमे भागी दारी थी। दोपहर के २ बजे, चमचमाती धुप में घर के बाहर बहुत ज़्यादा लोग नहीं पाये जाते।

मुझे बुरा लगा रहा था उस बाप बेटे की जोड़ी के लिए, पर अपनी तरफ़ से मैं असहाय ही था। न ही मेरे पास अपनी गुल्लक थी जो की मैं कुछ पैसे निकाल के उन्हें दे देता और न ही मुझे घर से पैसे मिलते थे बाहर कुछ खाने के लिए। हम पढ़े लिखे लोगों का एक बहुत पुराना तरीका होता है किसी भी तरह के guilt से अपने आप को अलग करने का। हम बहाने ढूंढ लेते हैं की हम फलां काम इसलिए नहीं कर पाये या उस वजह से नहीं कर पाये। खैर जो भी था, शायद उन बाप बेटे की लाचारी कुछ हद्द तक मेरी समझ में आ रही थी। इतन गर्मी में, नंगे पाँव नंगे बदन कोई भी बाप अपने बेटे को नहीं देख सकता। गरीब शब्द का मतलब शायद हम कभी इतनी गहराई से नहीं समझ सकते जितना की ये देख के की जब ८ साल का एक लड़का अपने बाप की गोद में लोरी सुनके सोता हुआ नहीं बल्कि बाप के इशारों पे इधर से उधर कूदता हुआ फांदता हुआ....दर्शकों का ध्यान बांटने की कोशिश कर रहा है। क्यूंकि शायद उसे इस बात का एहसास है की अगर आज इस तमाशे के बाद पैसे नहीं मिले तो उसके घर में कोई भी खाना नहीं खा पायेगा॥

लोगों को जाता देख उस बाप के दिल में ना जाने क्या आया की वो ज़ोर से चिल्लाया..."आज आपको दिखाऊंगा पहली बार, एक ऐसा चमत्कार जो कर देगा किसी की बोलती बंद। कलकत्ते का जादू है ये आपके शेहेर में नहीं पहले आया। जिसमे है हिम्मत, वो आगे आए....और फिर देखे अपनी आवाज़ को मेरी मुट्ठी में समाये"। एक निहायत ही पतला दुबला आदमी आगे आया पर शायद कुछ लोगों को शक हुआ और उन्होंने कहा की ये तुम्हारा ही आदमी लगता है, ओई और ढूंढो। उस तमाशाई की आँखें भर आई थीं। शायद उसे पता चल चुका था की आज फिर उसके घर में चूल्हा नहीं जलेगा। हार के मरी सी आवाज़ में उसने कहा की है किसी में दम जो आगे आए। लोग उसके फन को मानने को तैयार तो नहीं ही थे पर ख़ुद किसी में हिम्मत भी नहीं थी। शायद डरते थे की कहीं सच में आवाज़ चली गई तो। पता नही मेरे दिल में क्या आया, की शायद जब मेरे ऊपर वो अपना जादू नहीं चला पायेगा तो उसका भांडा फ़ुट जाएगा या फिर यूँ ही अपने आप को एक जादू के खेल में शामिल होता देखने की ख्वाहिश ने मुझे अपना हाथ उठाने पे मजबूर कर दिया।

वो जादूगर की कुछ समझ में नहीं आया, उसने मेरी तरफ़ घूर के देखा। उसने अपने बेटे को हाथ में कुछ काला कपड़ा देके कुछ समझाया और उसका बेटा मेरे पास आ खड़ा हुआ। बाप और बेटा शायद दोनों ही जानते थे की इस खेल का कोई फायेदा नहीं है इसलिए मन मसोस के ही उसने अपने बेटे से कहा की मेरे हाथ पे काला कपडा बाँध दे. वो चिल्लाया की उसके तीन तक गिनते ही मेरी आवाज़ बंद हो जायेगी और मैं अभी भी वापस जाना चाहूं तो जा सकता हूँ। शायद डर सा गया था की कहीं लोग फेंके हुवे पैसे भी न उठा लें। पर पता नहीं मेरे मन में कया था की मैं वहीँ रुका रहा। आख़िर इतना तो जानता ही था की ऐसा कुछ होना मुमकिन ही नहीं था इसीलिए शायद डर भी नहीं लगा।

कांपती आवाज़ में उसने कहा "एक...दो..." मेरी नज़र उसके बेटे के पेट पे गई...जिसपे मांस कम और हड्डियाँ ज़्यादा नज़र आ रही थी। "तीन...!!!"

..और मैं गूंगा बन गया ।।

No comments: