Wednesday, May 27, 2009

It’s not easy to be me..




I can’t stand to fly,
I’m not that naive..
I’m just out to find
The better part of me..

I’m more than a bird…I’m more than a plane
More than some pretty face beside a train
It’s not easy to be me

I wish that I could cry
Fall upon my knees
Find a way to lie
'bout a home I’ll never see 

It may sound absurd…but don’t be naive
Even Heroes have the right to bleed
I may be disturbed…but won’t you concede
Even Heroes have the right to dream
It’s not easy to be me 

Up, up and away…away from me
Well it’s all right…You can all sleep sound tonight
I’m not crazy…or anything… 

I can’t stand to fly
I’m not that naive
Men weren’t meant to ride
With clouds between their knees 

I’m only a man in a silly red sheet
Digging for kryptonite on this one way street
Only a man in a funny red sheet
Looking for special things inside of me 
inside of me ...... inside of me ...

I’m only a man in a funny red sheet
I’m only a man looking for a dream

I’m only a man in a funny red sheet
It’s not easy ... 
It’s not easy to be me...

Wednesday, May 20, 2009

एक कहानी..


बात शायद उन दिनों की है जब मैं class 5th या 6th में था। पता नहीं क्यूँ लेकिन हमेशा मुझे सड़क के किनारे दिखाए जानऐ वाले जादू टोने या फिर किसी सपेरे के साँप का खेल या ऐसे ही बाकी बचकाने दिखने वाले खेल तमाशों का शौक रहा था। हाँ, बन्दर का खेल देखना मैंने तब बंद कर दिया था जब ऐसे ही एक बार एक मदारी का तमाशा देखते देखते बन्दर ने मुझपे झपट कर मेरे हाथ पे एक अपने प्रेम भाव की निशानी छोड़ दी थी। शायद आपके भी हाथ पे टाँके लगेंगे तो सारा पशु पक्षी प्रेम वहीँ धरा का धरा रह जाएगा। खैर, ऐसी चीज़ों की तरफ़ मेरा बढ़ता ध्यान देख के घर वालों ने मुझे काफी पहले से ही समझाना शुरू कर दिया था की ये सब तमाशे जादू वगैरह सब हाथ की सफाई होती है और शायद घर में सबका थोड़ा religious bent of mind होने की वजह से भी शायद मुझे यही सिखाया गया था की किसी भी चमत्कार पे भरोसा करने से पहले उसकी सच्चाई को जानने की कोशिश करो। एक १०-११ साल के लड़के को इतनी बातें समझ में आती होती तो शायद आधे नोबल पुरस्कार अंडर-२० मिला करते...सो भूमिका बांधते बांधते मैंने शायद आपको ये समझा दिया की मुझे ये सब बहुत पसंद था!

जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, स्कूल से ही लौट रहा था। सड़क के किनारे भीड़ देखी तो मन मचल उठा। पास जाने पे पता चला की कोई बाप बेटे की टोली है और कुछ तो खेल तमाशे दिखा के लोगों से पैसे बटोरना चाह रहे हैं। शायद हमेशा से यही सीखा था की ये जादू, ये चमत्कार कुछ नहीं होता और जो लोग दिखाते हैं वो बस लोगों को उल्लू बनाना चाह रहे होते हैं, सो इसी वजह से ऐसे किसी भी खेल को मैंने उतनी ही skepticism से देखा है जितनी एक मेरी उम्र के बच्चे के बस में था। मुझे छोटा होने का एक फायेदा ज़रूर मिला की मैं किसी तरह इधर उधर से निकल के, सबसे आगे पहुँच गया। तब शायद वो एक खली गिलास में दूध भर जाने वाला जादू दिखा रहे थे। मैंने ये कई बार देखा था और शायद मेरे आस पास खड़े लोगों ने भी। तभी तो कोई सिक्के फेंके जाने की आवाजें भी नहीं आई। दरअसल ऐसे खेल दिखने में जो गिलास या जो भी accessories काम में आती थी वो आते जाते किसी न किसी मेले में कोई एक आध दुकानदार बेच ही रहा होता था। मेरी अपनी ही कहानी थी, मैंने शायद तभी ही कुछ दिन पहले "छोटा जादूगर" नाम का सीरियल देखा था, शायद कुनाल खेमू का पहले टीवी सीरियल, सो कुछ वैसा ही देखना चाह रहा था। उस बाप बेटे की जोड़ी ने फिर से कुछ खेल दिखाना शुरू किया। इस बार एक हाथ में सिक्का रख के दूसरे हाथ में अचानक से उसके आ जाने जैसा कुछ था। लोगों में थोडी सी भी उत्सुकता जैसा कुछ नहीं बचा था। मौसम की भी शायद इसमे भागी दारी थी। दोपहर के २ बजे, चमचमाती धुप में घर के बाहर बहुत ज़्यादा लोग नहीं पाये जाते।

मुझे बुरा लगा रहा था उस बाप बेटे की जोड़ी के लिए, पर अपनी तरफ़ से मैं असहाय ही था। न ही मेरे पास अपनी गुल्लक थी जो की मैं कुछ पैसे निकाल के उन्हें दे देता और न ही मुझे घर से पैसे मिलते थे बाहर कुछ खाने के लिए। हम पढ़े लिखे लोगों का एक बहुत पुराना तरीका होता है किसी भी तरह के guilt से अपने आप को अलग करने का। हम बहाने ढूंढ लेते हैं की हम फलां काम इसलिए नहीं कर पाये या उस वजह से नहीं कर पाये। खैर जो भी था, शायद उन बाप बेटे की लाचारी कुछ हद्द तक मेरी समझ में आ रही थी। इतन गर्मी में, नंगे पाँव नंगे बदन कोई भी बाप अपने बेटे को नहीं देख सकता। गरीब शब्द का मतलब शायद हम कभी इतनी गहराई से नहीं समझ सकते जितना की ये देख के की जब ८ साल का एक लड़का अपने बाप की गोद में लोरी सुनके सोता हुआ नहीं बल्कि बाप के इशारों पे इधर से उधर कूदता हुआ फांदता हुआ....दर्शकों का ध्यान बांटने की कोशिश कर रहा है। क्यूंकि शायद उसे इस बात का एहसास है की अगर आज इस तमाशे के बाद पैसे नहीं मिले तो उसके घर में कोई भी खाना नहीं खा पायेगा॥

लोगों को जाता देख उस बाप के दिल में ना जाने क्या आया की वो ज़ोर से चिल्लाया..."आज आपको दिखाऊंगा पहली बार, एक ऐसा चमत्कार जो कर देगा किसी की बोलती बंद। कलकत्ते का जादू है ये आपके शेहेर में नहीं पहले आया। जिसमे है हिम्मत, वो आगे आए....और फिर देखे अपनी आवाज़ को मेरी मुट्ठी में समाये"। एक निहायत ही पतला दुबला आदमी आगे आया पर शायद कुछ लोगों को शक हुआ और उन्होंने कहा की ये तुम्हारा ही आदमी लगता है, ओई और ढूंढो। उस तमाशाई की आँखें भर आई थीं। शायद उसे पता चल चुका था की आज फिर उसके घर में चूल्हा नहीं जलेगा। हार के मरी सी आवाज़ में उसने कहा की है किसी में दम जो आगे आए। लोग उसके फन को मानने को तैयार तो नहीं ही थे पर ख़ुद किसी में हिम्मत भी नहीं थी। शायद डरते थे की कहीं सच में आवाज़ चली गई तो। पता नही मेरे दिल में क्या आया, की शायद जब मेरे ऊपर वो अपना जादू नहीं चला पायेगा तो उसका भांडा फ़ुट जाएगा या फिर यूँ ही अपने आप को एक जादू के खेल में शामिल होता देखने की ख्वाहिश ने मुझे अपना हाथ उठाने पे मजबूर कर दिया।

वो जादूगर की कुछ समझ में नहीं आया, उसने मेरी तरफ़ घूर के देखा। उसने अपने बेटे को हाथ में कुछ काला कपड़ा देके कुछ समझाया और उसका बेटा मेरे पास आ खड़ा हुआ। बाप और बेटा शायद दोनों ही जानते थे की इस खेल का कोई फायेदा नहीं है इसलिए मन मसोस के ही उसने अपने बेटे से कहा की मेरे हाथ पे काला कपडा बाँध दे. वो चिल्लाया की उसके तीन तक गिनते ही मेरी आवाज़ बंद हो जायेगी और मैं अभी भी वापस जाना चाहूं तो जा सकता हूँ। शायद डर सा गया था की कहीं लोग फेंके हुवे पैसे भी न उठा लें। पर पता नहीं मेरे मन में कया था की मैं वहीँ रुका रहा। आख़िर इतना तो जानता ही था की ऐसा कुछ होना मुमकिन ही नहीं था इसीलिए शायद डर भी नहीं लगा।

कांपती आवाज़ में उसने कहा "एक...दो..." मेरी नज़र उसके बेटे के पेट पे गई...जिसपे मांस कम और हड्डियाँ ज़्यादा नज़र आ रही थी। "तीन...!!!"

..और मैं गूंगा बन गया ।।

Tuesday, May 12, 2009

Friendship - A plagiarized essay that wrote me

"Friendship is an involuntary reflex. 

I have always been big on friendship. Disproportionately big. I guess in most normal and structured lives everything fits in their own beautiful, snug, appropriate little places, and friendship has its own feel-good and convenient slot, rather like the best guest room in the house, just east of and one level down from the splendid master bedroom of eternal love. But for me, it has been different, and sometimes it feels like my house of life has been built pretty much with the dubious cement of real and assumed friendships. It has found its insidious way into the foundation plinth, the pillars, the floor, walls and roof. Its presence so ubiquitous, that it has perhaps turned completely unhealthy. Not just for me, but also for my family, my romantic interests and even occasionally for some of my more unfortunate friends. Like some, who love(d) me more intensely than others - or perhaps hate(d) me more despairingly than most - said: "Your friend fixation will ruin your life, sweetheart. Get a perspective!" Ah well. Advise. Often the worst gift from the best-intentioned folks. 

Friendship. Such a feel good word, conjuring up images nice and warm: get-togethers full of resonant laughter and palpable happiness in some warm, summer evening, on an open terrace somewhere far away from the city bustle; shared beers and confidences in a dark and cozy pub, as the skies open up in a torrential downpour outside and the jukebox plays an old Doobie Brothers favorite; shoulder to shoulder, battling common odds, and the euphoria of victories earned together, or even the shared blue note of an occasional setback; an open road, wind in the hair, a sense of freedom, togetherness. 

Yes, good times. With some people it's just easier to find than with others, I guess. And perhaps given a simple spark of potential affinity between two people, sometimes everything else in the universe conspires to push them together as friends. Maybe they would share the same immediate future, having met on the first day in a new college hostel. Maybe they share a common interest, finding the deepest connection in their love for Pearl Jam and Eddie Vedder's grungy, dark tones. Maybe they fight for the same cause, espousing it with the same intensity, at least for the next few years and until something else catches at least one of their fancy. Or maybe its much more subtle, like just a particular sense of humor, that makes conversations easy, fun, relaxed, natural. And a bond is struck, unsullied by expectations or anxieties that mar almost every new romantic liaison, free of the desparate burden of duties that family can often impose. Another friendship is born. Another journey begins.

And while the good times do certainly roll for most such friendships as the wheels of time trundle along, I suppose the nature of every friendship finds unique character in the way it evolves. The earth grows older, and we grow with it, each in our own unique ways, sometimes so slow, sometimes faster, and our friendships change and grow with us. Some friendships ignite and then die away real quick, forever forgotten. Some spit and sputter, like a damp wood trying to catch fire, but carry on regardless, for far longer than you could imagine. Some turn darker with age, growing painful like an ingrown toenail, poisoned by our own frustrations, misunderstandings and jealousies. And only a few grow roots that inexorably keep digging deeper and deeper into our souls, friendships that sometimes outlast a lifetime. But hey, those are the rare ones. Most of your friendships today, despite the joy it brings you now, will most probably fade away the day after tomorrow, leaving just a unique set of footprints in the slowly shifting sands of your life.

Such a tragedy. Nothing lasts forever, I suppose, and not just in the cold November rain. 

And as the earth spins around, days pass slowly by, and years flash past, I try and not lose sight of my own self, as I myself grow, change, and morph, sometimes willingly and in directions that I want to explore, and other times unwittingly, along ways from where I struggle to return. And when I find time to breathe, I look around me, and see everything and every one of my friends change too. Some grow in different ways than I, veering off in directions that shall never be mine. Some get lost, mired in the quicksands of frustrations, misfortunes, self loathing, and pride. Them I watch, in futile sadness, trying to clutch on to the fond memories of the good times together, yet somehow dispassionate at the silent end of an era of friendship, resigned to a strange portent of inevitability. Other friends, miraculously somehow, remain, changing spontaneously also in the pretty much the same ways as I do, across the tortuous terrains of time, in step, in spite of long periods of separation, or despite intense shared tribulations that strain the relationship's every fibre. More out of accident than out of any individual effort of our own engineering, these are the friendships I remain thankful for. 

And I realize, not only are true friendships born of involuntary reflex, but they are, in spite of all differences of our unique circumstances of evolution and misguided wanderings across life in search for our own identities, ultimately the true gifts of our destiny. Raise a glass of cheer with me, my friends, past, present and future, who read this now, in a toast to that most treasured accident of our fates: friendship!"

Falling in Love at a Coffee Shop

I think that possibly, maybe I'm falling for you
Yes there's a chance that I've fallen quite hard over you..
I've seen the paths that your eyes wander down
I want to come too..

I think that possibly, maybe I'm falling for you..

No one understands me quite like you do
Through all of the shadowy corners of me..

I never knew just what it was about this old coffee shop
I love so much..
All of the while I never knew
I never knew just what it was about this old coffee shop
I love so much..
All of the while I never knew

I think that possibly, maybe I'm falling for you
Yes there's a chance that I've fallen quite hard over you.
I've seen the waters that make your eyes shine
Now I'm shining too

Because oh because
I've fallen quite hard over over you

If I didn't know you, I'd rather not know
If I couldn't have you, I'd rather be alone

I never knew just what it was about this old coffee shop
I love so much..
All of the while I never knew
I never knew just what it was about this old coffee shop
I love so much..
All of the while, I never knew

All of the while , all of the while
It was you..

Friday, May 08, 2009

How hard can it be to pen down your thoughts in to one cohesive paragraph. Few minutes, few hours, few days? Tried changing languages...starting off on atleast 6 different thought offshoots. Nothing worked. Nothing works. Its definitely not a writer's block...for when was i a writer anyway. There are things about the place, the people, the ways - everything - that need a good description for myself to be reminded of in the later years.

And staring at the screen for 20 mins now...but nothing...zilch. I should stop writing at all.